तो हमें यही सिखाया गया है कि गुस्से पर काबू रखो. हमारे मां-बाप, बड़ों और गुरुओं ने हमेशा यही कहा. पर क्या इस पर काबू हो पाया. न हो पाया न हो पाएगा. क्योंकि तरीका ही गलत है. बरसों से यही गलत तरीका अपनाया जा रहा कि काबू करो गुस्से पर. पर क्या कभी किसी को काबू में रखकर रोका जा सका है? पकड़ ढीली पड़ते ही निकल भागेगा. या फिर जब कभी तुम कमजोर या वो मजबूत हुआ तो छूट जाएगा पकड़ से. फिर चढ़ जाएगा तुम्हारे ऊपर. तो क्रोध को खत्म करने का ये तरीका ही गलत है. और हम सदियों से इसी को अपना रहे हैं. फिर भी गुस्सा है कि आ ही जाता है. आम लोगों की क्या बात करें बड़े बड़े साधु संतों को भी आता रहा है. शाप देते रहे हैं. दुर्वाषा रिषि तो इसके लिए जाने ही जाते रहे हैं. कभी कभी तो देवताओं को भी गुस्सा आ जाता है. ग्रंथ यही बताते हैं. तो हमारी आपकी बिसात ही क्या.
तो फिर कैसे मुक्त करें गुस्से से खुद को. यही तो है असली बात काबू नहीं करना है, मुक्त करना है क्रोध से. तो मुक्ति पकड़ के जकड़ के नहीं की जा सकती. इसके लिए खोलना होगा मन को. तो मैं कहता हूं प्रेम करो क्रोध से. इतना प्रेम कि गुस्सा भी प्रेम बन जाए. जैसे कि ढेर सारे शहद में थोड़ा बहुत कड़वा मिला दो तो वो भी मिठास बनी रहती है. इतना अधिक प्रेम करो कि जो थोड़ा मोड़ा गुस्सा है वो भी प्रेम में समाहित हो जाए और फिर मुक्त हो जाए खुद भी और तुमको भी मुक्त कर दे. जैसे मीरा मुक्त हुईं, जैसे कबीर मुक्त हुए. क्योंकि एक प्रेम ही है जो मुक्त करता है. बाकी सब बांधते हैं. तो क्रोध पर कंट्रोल मत करो क्योंकि ये टंपरेरी व्यवस्था है. क्रोध से प्रेम करो, इतना प्रेम की बस प्रेम ही बचे. गुस्सा भी मुक्त हो और तुम भी गुस्से से.
सरलानंद
ब्लाग की दुनिया में कदम रखने पर आपका स्वागत है, क्रोध से प्यार करना होगा...?
ReplyDeleteMy Blog is ncpaneru.blogspot.in
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