Friday, October 31, 2014

आज़माइश

हरेक लम्हे को जीने की ख्वाहिश क्यों है
जिंदगी हर घड़ी तेरी आज़माइश क्यों है.

टुकड़ा टुकड़ा बिक गया ज़मीर सारा
अब यहां उसूल की पैमाइश क्यों है.

दरमियां फासलों के सिवा कुछ भी न बचा लेकिन
कहीं किसी कोने में फिर भी गुंज़ाइश क्यों है.

ताउम्र चेहरे पे कलेंडर सजाए रहे
वक्त फिर भी मुझसे तेरी रंजिश क्यों है.

तुझे छोड़ देने की कसमें खाता हूं रोज
साकी पर मुझ पे तेरी नवाज़िश क्यों है.

इक बूंद आंसू, इक कतरा आह
इश्क में ये अजीब सी फरमाइश क्यों है.

मुहब्बत में ये रवायत भी खूब है
जां के लिए जां देने की ख्वाहिश क्यों है.

हरेक लम्हे को जीने की ख्वाहिश क्यों है
जिंदगी हर घड़ी तेरी आज़माइश क्यों है.


-- (C) राजकुमार सिंह

Friday, October 10, 2014

Alchemist

तुमसे मिलकर निखर गया हूं मैं
खुशबू बनके फिजां में बिखर गया हूं मैं

तुमने जब से निगाह डाली है
कितनी आंखों में अखर गया हूं मैं

तेरी तासीर ही कुछ ऐसी है
बिन सजे ही संवर गया हूं मैं

मांगा कुछ भी नहीं खुदा की कसम
तेरी रहमत से ही भर गया हूं मैं

खोल दो लब उठा भी लो बांहें
आखिरी बार है मर गया हूं मैं

एक पाकीजा सा नूर है तुझमें
बिन इबादत ही तर गया हूं मैं

मेरे महबूब मुझसे मत पूछो
कहां से आया किधर गया हूं मैं

मैं इक परिंदा तू हौसला मेरा
यूं आसमां फतह कर गया हूं मैं

तेरी खामोशी को पढ़ लेना हुनर है मेरा

अलफाज़ सब तेरे हैं गज़ल में भर गया हूं मैं.

Rajkumar