Friday, August 29, 2014

चेहरों पे पहाड़---

जो एक नज़र में लोगों को पहचान जाते हैं
वो दुनिया को कितना कम जान पाते हैं

बड़े सियासतदां हैं मुल्क की किस्मत बनाते हैं
घर के चराग से ही घर को जलाते हैं

बड़े साहबों का ये मिजाज़ भी खूब है
करना तो दूर सलाम लेने से भी कतराते हैं

कभी गौर से देखो तो जान जाओगे
कुछ चेहरों पे पहाड़ भी उग आते हैं

इन आंखों में उतरोगे तो बह जाओगे
कई समंदर हैं जो रह रह के थरथराते हैं

खामोशी को पढ़ लेना आसान नहीं होता
वक्त की स्लेट पे कई अफसाने लिखे होते हैं

हाथ में हाथ हमेशा रहे ज़रूरी तो नहीं
मेहंदी से हथेली पे तेरा नाम लिखे रहते हैं

जो एक नज़र में लोगों को पहचान जाते हैं
वो दुनिया को कितना कम जान पाते हैं.   
-राजकुमार सिंह


Thursday, August 21, 2014

इम्तेहां से गुज़रे हैं

कैसे कैसे इम्तेहां से गुज़रे हैं
मुज़रिम की तरह इस जहां से गुज़रे हैं

ज़िंदगी तेरी इक हंसी की ख़ातिर
हम न जाने कहां कहां से गुज़रे हैं

इश्क तेरा खूबसूरत भरम रखने को
हम दर्द की हर दास्तां से गुज़रे हैं

कब किस मोड़ पर तेरी सदा सुनाई दे
इस आस में हर कूंचा-ए-जहां से गुज़रे हैं

बस ये अख़िरी है फिर नहीं आएंगे लौटकर
ये सोचकर हर बार मैयकदा से गुज़रे हैं

जिंदगी तेरा इक कतरा भी समझ नहीं पाए
कहने को तो सारे जहां से गुज़रे हैं

कैसे कैसे इम्तेहां से गुज़रे हैं
मुज़रिम की तरह इस जहां से गुज़रे हैं

-राजकुमार सिंह



Friday, August 8, 2014

वो सुबह कब आएगी

बरसों हुए जैसे रोए हुए
कहीं तुम कहीं हम हैं खोए हुए
कहते सुनते हैं पर बात नहीं होती
इस शहर में कभी रात नहीं होती.

लैपटाप से लिपटे हाथ अभी भी नरम हैं
हथेली के इंतजार में पेशानी अभी भी गरम है
अब तो मोबाइल से ही हालचाल मिल पाता है
फ्लैट का दरवाजा बाहर की चाबी से ही खुलता है.

काश ये नजरें कभी टारगेट से हटतीं
बैलेंस शीट से कभी खुशियां निकलतीं
चारों ओर आंकड़ों का तिलस्म गहरा है
वर्कर की हंसी पर टारगेट का पहरा है.

फ्लैट से चांद देखने में रिस्क है
खुश रहने का टाइम फिक्स है
जिंदगी ऐसे ही मेट्रो में कट जाएगी
तुम्हारी आएगी तो मेरी स्टेशन से जाएगी.

लेकिन कहानी ऐसे खत्म न हो तो बेहतर
लाखों लोगों की आहों में कुछ हो तो असर
जिंदगी कभी तो सचमुच मुसकुराएगी
बकौल साहिर, वो सुबह कभी तो आएगी.
राजकुमार सिंह