Saturday, March 22, 2014

दिल्लगी

दिल्लगी कुछ यूं अकसर हो जाती है
जिसे संभाल कर रखो चीज वही खो जाती है

बादल कुछ यूं लेता है प्यास का इम्तहान
सूरज की राह तकते रात सो जाती है.

रास्ते करने लगे हैं मजाक कुछ इस तरह
सफर जब खत्म हो तो मंजिल खो जाती है.

हजारों टोटके कर लो कितने ही सदके ले लो
नजर खुशियों को फिर भी लग ही जाती है.

खुद को संभालने का सलीका बहुत है लेकिन
इस आंख का क्या करें नम हो ही जाती है.

जन्नत के दर तक पहुंच के लौट आते हैं
साकी को भी मयकदे की आदत हो जाती है.

दर्द कितना भी हो बर्दाश्त हो ही जाता है
जिंदगी तू भी इक गुलाब सी हो जाती है.

-राजकुमार सिंह

Wednesday, March 12, 2014

उम्मीदों का परबत

सीने में दर्द का सैलाब दबाए हुए सा है
वो उम्मीदों का परबत उठाए हुए सा है.

मैदान-ए-जंग में वो जूझता है रोज
जख्मों को करीने से सिलाए हुए सा है.

तुम उसको जानते बहुत हो लेकिन
कुछ है जो तुमसे भी वो छिपाए हुए सा है.

न तुम्हें आना था न तुम आए ही
महफिल को मगर अब भी वो सजाए हुए सा है.

इस खाली घर में अब न आएगा कोई भी
दिया तेरे नाम का फिर भी वो जलाए हुए सा है.

लोग छूटे, बस्तियां और कारवां भी
इस बियाबां में इक फूल वो खिलाए हुए सा है.

हर बार वो कहती है न आऊंगी पलट कर
पर सांस को अब तक वो मनाए हुए सा है.

मौत ने कोशिश तो बहुत की लेकिन
जिंदगी का गीत वो बजाए हुए सा है.

वो कैसे खुदा तेरे दर पे दे दस्तक
मुहब्बत को इबादत जो बनाए हुए सा है.

राजकुमार सिंह.

Saturday, March 1, 2014

अफसोस

जिंदगी की राह से गुजरे तो महसूस हुआ
जहां जिसे भी छोड़ दिया उसी का अफसोस हुआ

गैरों की बस्ती में तो कोई आस कहां थी
अपनों की महफिल में ही मेरा इम्तिहान हुआ

तकल्लुफ भरी इन गलियों से बच के निकलता हूं
इस शहर ने मुझे और मैंने शहर को पहचान लिया

वक्त ढल जाएगा तो कोई सलाम भी न लेगा
चढ़ते सूरज के दौर मैंने ये खूब जान लिया

- राजकुमार सिंह