Saturday, November 29, 2014

प्रवाह

लहरों की रवानी कहीं नहीं जाती
वैसे ही जैसे जवानी कहीं नहीं जाती
देखो ये तो खड़ी है तुम्हारे सामने
समा रही है बच्चों में
नए फूल खिलने को तैयार हैं.

ऊर्जा बन कर बहती है
इस मिट्टी में बसती है                  
बीज से खिलती है
नए पौधों में मिलती है
जवानी कहीं जाती नहीं.

सैनिकों के बूटों में गाती है
लड़कियों की चोटियों में लहराती है
पेड़ से पौधे में समाती है
जवानी कहीं नहीं जाती.

इस सरल प्रक्रिया का हिस्सा बनो
विदाई का सम्मान रखो
बच्चों की उंगली पकड़ दे दो अपनी ताकत
और देखो अपनी जवानी को एक नए रंग में
क्योंकि जवानी कहीं जाती नहीं.
(c) राजकुमार सिंह

Friday, October 31, 2014

आज़माइश

हरेक लम्हे को जीने की ख्वाहिश क्यों है
जिंदगी हर घड़ी तेरी आज़माइश क्यों है.

टुकड़ा टुकड़ा बिक गया ज़मीर सारा
अब यहां उसूल की पैमाइश क्यों है.

दरमियां फासलों के सिवा कुछ भी न बचा लेकिन
कहीं किसी कोने में फिर भी गुंज़ाइश क्यों है.

ताउम्र चेहरे पे कलेंडर सजाए रहे
वक्त फिर भी मुझसे तेरी रंजिश क्यों है.

तुझे छोड़ देने की कसमें खाता हूं रोज
साकी पर मुझ पे तेरी नवाज़िश क्यों है.

इक बूंद आंसू, इक कतरा आह
इश्क में ये अजीब सी फरमाइश क्यों है.

मुहब्बत में ये रवायत भी खूब है
जां के लिए जां देने की ख्वाहिश क्यों है.

हरेक लम्हे को जीने की ख्वाहिश क्यों है
जिंदगी हर घड़ी तेरी आज़माइश क्यों है.


-- (C) राजकुमार सिंह

Friday, October 10, 2014

Alchemist

तुमसे मिलकर निखर गया हूं मैं
खुशबू बनके फिजां में बिखर गया हूं मैं

तुमने जब से निगाह डाली है
कितनी आंखों में अखर गया हूं मैं

तेरी तासीर ही कुछ ऐसी है
बिन सजे ही संवर गया हूं मैं

मांगा कुछ भी नहीं खुदा की कसम
तेरी रहमत से ही भर गया हूं मैं

खोल दो लब उठा भी लो बांहें
आखिरी बार है मर गया हूं मैं

एक पाकीजा सा नूर है तुझमें
बिन इबादत ही तर गया हूं मैं

मेरे महबूब मुझसे मत पूछो
कहां से आया किधर गया हूं मैं

मैं इक परिंदा तू हौसला मेरा
यूं आसमां फतह कर गया हूं मैं

तेरी खामोशी को पढ़ लेना हुनर है मेरा

अलफाज़ सब तेरे हैं गज़ल में भर गया हूं मैं.

Rajkumar

Saturday, September 27, 2014

जीने के बहाने हज़ार हुए

नज़र को धोखे बार बार हुए
यूं जीने के बहाने हज़ार हुए

तेरी आहट से जीने की वजह मिलती रही
ज़िंदगी के पल तो कब से तार तार हुए

उम्मीदों की किताबों में थक कर लौट आता हूं
उन किताबों के पन्ने भी अब ज़ार ज़ार हुए

उसी शाम को अब तक सहेजे बैठा हूं
जिसके आगोश में हम तुम ज़ार ज़ार हुए

कभी हाथों से कभी आंखों से फिसला लम्हा
हादसे साथ मेरे ऐसे बार बार हुए

मुकम्मल सा एक अहसास भी दे न पाए तुझे
जिंदगी खुद से भी हम अब तो शर्मसार हुए

टूटा चांद देता है जीने का हौसला हमको
तीर तो कितने ही ज़िगर के आर पार हुए

कभी हाथों से कभी बातों से उतारी बलाएं
किस्मत संवारने के टोटके पर सब बेकार हुए.

कयामत होगी जब आएगी डोली में मिलने मुझसे
ऐ आखिरी दोस्त तेरे दीदार को हम भी बेकरार हुए.
Rajkumar Singh

Friday, August 29, 2014

चेहरों पे पहाड़---

जो एक नज़र में लोगों को पहचान जाते हैं
वो दुनिया को कितना कम जान पाते हैं

बड़े सियासतदां हैं मुल्क की किस्मत बनाते हैं
घर के चराग से ही घर को जलाते हैं

बड़े साहबों का ये मिजाज़ भी खूब है
करना तो दूर सलाम लेने से भी कतराते हैं

कभी गौर से देखो तो जान जाओगे
कुछ चेहरों पे पहाड़ भी उग आते हैं

इन आंखों में उतरोगे तो बह जाओगे
कई समंदर हैं जो रह रह के थरथराते हैं

खामोशी को पढ़ लेना आसान नहीं होता
वक्त की स्लेट पे कई अफसाने लिखे होते हैं

हाथ में हाथ हमेशा रहे ज़रूरी तो नहीं
मेहंदी से हथेली पे तेरा नाम लिखे रहते हैं

जो एक नज़र में लोगों को पहचान जाते हैं
वो दुनिया को कितना कम जान पाते हैं.   
-राजकुमार सिंह


Thursday, August 21, 2014

इम्तेहां से गुज़रे हैं

कैसे कैसे इम्तेहां से गुज़रे हैं
मुज़रिम की तरह इस जहां से गुज़रे हैं

ज़िंदगी तेरी इक हंसी की ख़ातिर
हम न जाने कहां कहां से गुज़रे हैं

इश्क तेरा खूबसूरत भरम रखने को
हम दर्द की हर दास्तां से गुज़रे हैं

कब किस मोड़ पर तेरी सदा सुनाई दे
इस आस में हर कूंचा-ए-जहां से गुज़रे हैं

बस ये अख़िरी है फिर नहीं आएंगे लौटकर
ये सोचकर हर बार मैयकदा से गुज़रे हैं

जिंदगी तेरा इक कतरा भी समझ नहीं पाए
कहने को तो सारे जहां से गुज़रे हैं

कैसे कैसे इम्तेहां से गुज़रे हैं
मुज़रिम की तरह इस जहां से गुज़रे हैं

-राजकुमार सिंह



Friday, August 8, 2014

वो सुबह कब आएगी

बरसों हुए जैसे रोए हुए
कहीं तुम कहीं हम हैं खोए हुए
कहते सुनते हैं पर बात नहीं होती
इस शहर में कभी रात नहीं होती.

लैपटाप से लिपटे हाथ अभी भी नरम हैं
हथेली के इंतजार में पेशानी अभी भी गरम है
अब तो मोबाइल से ही हालचाल मिल पाता है
फ्लैट का दरवाजा बाहर की चाबी से ही खुलता है.

काश ये नजरें कभी टारगेट से हटतीं
बैलेंस शीट से कभी खुशियां निकलतीं
चारों ओर आंकड़ों का तिलस्म गहरा है
वर्कर की हंसी पर टारगेट का पहरा है.

फ्लैट से चांद देखने में रिस्क है
खुश रहने का टाइम फिक्स है
जिंदगी ऐसे ही मेट्रो में कट जाएगी
तुम्हारी आएगी तो मेरी स्टेशन से जाएगी.

लेकिन कहानी ऐसे खत्म न हो तो बेहतर
लाखों लोगों की आहों में कुछ हो तो असर
जिंदगी कभी तो सचमुच मुसकुराएगी
बकौल साहिर, वो सुबह कभी तो आएगी.
राजकुमार सिंह

Saturday, July 5, 2014

दिल को अब मंदिर में रखा जाए

हर बात अधूरी है किस किस को पूरा किया जाए
आधी ही सही जिंदगी को अब पूरा जिया जाए

अमृत की चाह में कब तक प्यासे रहेंगे हम
आओ इस ज़हर को ही कुछ मीठा किया जाए

इतना जला है तो पाक हो ही गया होगा
आओ इस दिल को अब मंदिर में रखा जाए

ये दर्द-ए-दिल भी वक्त का नज़राना है
आओ इस टीस का भी मज़ा लिया जाए

चेहरे पे उम्र के निशान बड़ी मेहनत से आते हैं
आओ इन सलवटों को करीने से सजाया जाए

खाक या राख होना ही इसकी किस्मत है
जब तक चाबी है इस पुतले को हंसाया जाए

हर बात अधूरी है किस किस को पूरा किया जाए
आधी ही सही जिंदगी को अब पूरा जिया जाए
-राजकुमार सिंह

Sunday, May 11, 2014

मां

    अपनी सलाहियत को परखना चाहता हूं
मां तुझ पर कुछ लिखना चाहता हूं.

दिल में है क्या है जान लेगी हमेशा की तरह
मां फिर भी तुझे कुछ बताना चाहता हूं.

सयाने होने की बड़ी कीमत चुकायी है मैंने
मां बच्चा बनके फिर तुझको सताना चाहता हूं

दर्द कितना ही बड़ा हो अब आते नहीं आंसू
मां मुझे फिर डांट मैं रोना चाहता हूं.

दुआ बन के अब भी रगों में दौड़ता है
मां तू मेरे लहू में है ये दिखाना चाहता हूं.

मौला मेरी दुआओं का रंग सुर्ख कर दे

मां तेरा आंचल सजाना चाहता हूं.

राजकुमार सिंह

Sunday, April 27, 2014

मासूम

ये तब की बात है
जब शब्दों के अर्थ नहीं होते थे
सिर्फ अहसास ही काफी था
कुछ कहने सुनने को.
तब तुम जैसे ओस की एक बूंद
और मैं एक कोरी स्लेट
तुम तब भी थीं थोड़ी समझदार और पूरी मासूम
और मुझ पर भी बहुत कुछ लिखा जाना था.
ये अब की बात है
तुम्हारे होठों पर अब भी टिकी है
वो ओस की बूंद पर पपड़ी बन कर
और मेरी स्लेट लिखते-मिटते जैसे घिस सी गयी है.
तब से अब तक
यूं ही चले हम भीगते सूखते
न तुम संभाल पायीं वो ओस की बूंद
और न मेरी स्लेट रही कोरी.
Rajkumar Singh

Saturday, March 22, 2014

दिल्लगी

दिल्लगी कुछ यूं अकसर हो जाती है
जिसे संभाल कर रखो चीज वही खो जाती है

बादल कुछ यूं लेता है प्यास का इम्तहान
सूरज की राह तकते रात सो जाती है.

रास्ते करने लगे हैं मजाक कुछ इस तरह
सफर जब खत्म हो तो मंजिल खो जाती है.

हजारों टोटके कर लो कितने ही सदके ले लो
नजर खुशियों को फिर भी लग ही जाती है.

खुद को संभालने का सलीका बहुत है लेकिन
इस आंख का क्या करें नम हो ही जाती है.

जन्नत के दर तक पहुंच के लौट आते हैं
साकी को भी मयकदे की आदत हो जाती है.

दर्द कितना भी हो बर्दाश्त हो ही जाता है
जिंदगी तू भी इक गुलाब सी हो जाती है.

-राजकुमार सिंह

Wednesday, March 12, 2014

उम्मीदों का परबत

सीने में दर्द का सैलाब दबाए हुए सा है
वो उम्मीदों का परबत उठाए हुए सा है.

मैदान-ए-जंग में वो जूझता है रोज
जख्मों को करीने से सिलाए हुए सा है.

तुम उसको जानते बहुत हो लेकिन
कुछ है जो तुमसे भी वो छिपाए हुए सा है.

न तुम्हें आना था न तुम आए ही
महफिल को मगर अब भी वो सजाए हुए सा है.

इस खाली घर में अब न आएगा कोई भी
दिया तेरे नाम का फिर भी वो जलाए हुए सा है.

लोग छूटे, बस्तियां और कारवां भी
इस बियाबां में इक फूल वो खिलाए हुए सा है.

हर बार वो कहती है न आऊंगी पलट कर
पर सांस को अब तक वो मनाए हुए सा है.

मौत ने कोशिश तो बहुत की लेकिन
जिंदगी का गीत वो बजाए हुए सा है.

वो कैसे खुदा तेरे दर पे दे दस्तक
मुहब्बत को इबादत जो बनाए हुए सा है.

राजकुमार सिंह.

Saturday, March 1, 2014

अफसोस

जिंदगी की राह से गुजरे तो महसूस हुआ
जहां जिसे भी छोड़ दिया उसी का अफसोस हुआ

गैरों की बस्ती में तो कोई आस कहां थी
अपनों की महफिल में ही मेरा इम्तिहान हुआ

तकल्लुफ भरी इन गलियों से बच के निकलता हूं
इस शहर ने मुझे और मैंने शहर को पहचान लिया

वक्त ढल जाएगा तो कोई सलाम भी न लेगा
चढ़ते सूरज के दौर मैंने ये खूब जान लिया

- राजकुमार सिंह

Thursday, February 20, 2014

दहलीज़ पर मुहब्बत

रोजी रोटी के चक्कर से छुड़ाऊं कैसे
ऐ मुहब्बत तुझे घर अपने मैं लाऊं कैसे.

हर एक पल कशमकश में जिया है मैंने
जिंदगी तुझको तो नश्तर से सिया है मैंने
अब इसे आंचल मैं तेरा बनाऊं कैसे
ऐ मुहब्बत तुझे घर अपने मैं लाऊं कैसे.

उम्र तो वक्त के पहिए सी कटी जाती है
जिंदगी सांस दर सांस घटी जाती है
वक्त को इश्क का नाज़िर मैं बनाऊं कैसे
ऐ मुहब्बत तुझे घर अपने मैं लाऊं कैसे.

एक तरफ चांद है, तारे हैंसभी प्यारे हैं
एक तरफ आग है, राख हैअंगारे हैं
आह को इश्क की राह बनाऊं कैसे
ऐ मुहब्बत तुझे घर अपने मैं लाऊं कैसे.

मुहब्बत भी शहंशाहों के सिर का ताज हो गयी
आह भी किसी की गज़ल का साज़ हो गयी
इस साज़ को तेरे होठों पे सजाऊं कैसे
ऐ मुहब्बत तुझे घर अपने मैं लाऊं कैसे.
राजकुमार सिंह.

Friday, February 14, 2014

वेलेंटाइन डे पर

वो शब्द जो कहे नहीं गए
बस आंखों ने पढ़े
मन में गढ़े
आज भी सिर्फ तुम्हारे हैं.

वो महक जो किसी फूल की नहीं
बस सांसों में बसी
फिजाओं में हंसी
आज भी तुम्हारी है.

वो सपने जो आंखों ने नहीं देखे
दिल से दिल ने बुने
हमने मिलकर चुने
आज भी तुम्हारे हैं.

वो जो भी है अनकहा
अनसुना
अनछुआ
सब आज भी तुम्हारा है.
मेरे वेलेंटाइन.
(Rajkumar Singh,14 Feb- 2010)

Sunday, January 26, 2014

माडर्न आर्ट

तुम जो सदियों से आधे हो
आधे नंगे, आधे पेट, आधे जीवन
तुम्हारे आंसुओं को पी जाते हैं
वे शराब की तरह
तुम्हारे चेहरे की झुर्रियों को
टांग देते हैं ड्राइंग रूम में
मातृत्व को देते हैं इनाम
आर्ट गैलरियों में
तुम्हारी त्रासदी कहानी
बेच देते हैं बाजारों में
बंदर बना कर नचा देते हैं
तुमको परेडों में
तुम्हारे जंगलों में बो देते कंक्रीट
तुम्हारे लहू से लिख देते विकास गाथा
धरती खो जाने के डर से
तुमने आसमान नहीं देखा
अब न राम आएंगे, न जामवंत
स्वयं जगानी होगी शक्ति
लंका दहन को.
Rajkumar Singh

Friday, January 17, 2014

लहू भी अब लाल नहीं होता

तुम्हारे गुनाहों का कोई हिसाब नहीं होता
हद तो ये है कि लहू भी अब लाल नहीं होता.

लहू कुछ इस कदर ठंडा हो गया है
आंख को तो छोड़िए, रगों में भी उबाल नहीं होता.

अहसान नमक बन के नसों में दौड़ता है
फिर भी लहू अब तक हलाल नहीं होता.

तुम्हारी मसीहाई में कत्ल हो जाते हैं बच्चे
और तुमसे कोई सवाल नहीं होता.

सदियों से सजदे में झुका है सिर
क्यों तेरा जलवा जलाल नहीं होता.

काफिले लुटते रहे, हम गजल कहते रहे
रहबर तेरी रहबरी पर फिर भी सवाल नहीं होता.

डेमोक्रेसी का मजमा तो देखो दोस्तो
बंदरों से भी अब सलाम नहीं होता.

लहू का स्वाद जब से मुंह लग गया है
हुक्मरानों के हाथों में अब जाम नहीं होता.

तुम्हारी एक वहशत से मिट जाती हैं नस्लें
और फिर भी तुम पर कोई इलजाम नहीं होता.   


कभी नारों से हिल जाती थी धरती
अब मर भी जाओ तो ये काम नहीं होता.
Rajkumar Singh

Tuesday, January 14, 2014

आधा चांद

जिंदगी मुझे आधे चांद सी लगती है
आधे वक्त पूरा होने की ख्वाहिश
आधे वक्त खुद को बचाने की कोशिश
हर वक्त कशमकश सिर्फ कशमकश

मैं अपने हिस्से का आधा चांद लेकर रोज आता हूं छत पर
इस इंतजार में कि कभी तो तुम आओगी
अपने हिस्से का चांद लेकर अपनी छत पर
और हम देखेंगे पूरणमासी की रात

आधे चांद के डोले से हर रात गिरते हैं सपने
जो देखे थे हमने और तुमने
लेकिन जिंदगी हमेशा पालकी में नहीं चलती है
हर डोली कहीं तो उतरती है

मुझे टूटा चांद भाता है
ये लंबा साथ जो निभाता है

कुछ धुंध, कुछ अंधेरा तो चाहिए

रात कितनी भी जगमग सही, पर सवेरा तो चाहिए
जिंदगी में कुछ धुंध, कुछ अंधेरा तो चाहिए

आसमां में कब तक उड़ेंगे
धूप से कब तक लड़ेंगे
कुछ दरख्तों को अब तो बचाइए
परिंदों को इक बसेरा तो चाहिए

मंदिरों की मसजिदों की सीढ़ियां ऊंची बहुत हैं
धर्म ने दीवारें खींची बहुत हैं
मयकदों पे यूं न तोहमत लगाइए
काफिरों को आसरा तो चाहिए

अक्लमंदों के ठिकाने बहुत हैं
देश में मैकाले की दुकानें बहुत हैं
कहीं कबीर को भी जिंदा रहने दीजिए
अनपढ़ों को कुछ सहारा तो चाहिए

जीने को गलतफहमियां, हंसने को बेवकूफियां हैं जरूरी
याद आने को दूरियां भी हैं जरूरी
और फिर तरक्की को दायरा तो चाहिए
जिंदगी में कुछ धुंध कुछ अंधेरा तो चाहिए